आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व इसी पावन भूमि पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी ने अवतार धारण किया था अर्थात मानव जन्म लिया था, अयोध्या की इसी पवित्र स्थल की पुनीत रज में लोट पोट कर पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र ने लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन जी के साथ अपने देव-दुर्लभ बाल चरित्र किये थे। ईशा की शताब्दियों पूर्व भारतके राज सिंहासन को सुशोभित करने वाले सम्राटों ने समय समय पर श्रीराम-जन्मभूमि अयोध्या की रक्षा की। इसका जीर्णोंद्धार करते रहे। किन्तु किरात शक और हूणों के आक्रमण के समय ज्यादातर हिन्दू राजाओं ने इधर से अपना ध्यान हटा लिया और परिणाम स्वरुप प्राचीन मंदिर भग्न हो गया मतलब खंडित हो गया और वस्तु शेष नहीं बचा अंतता ईशा से लगभग एक शताब्दी पूर्वा हिन्दू कुल के देदीप्यमान भानु सम्राट विक्रमादित्य ने बड़े परिश्रम से खोजकर इस पावन भूमि बड़ा विशाल मंदिर बनवा दिया।
कहते हैं की उस समय भारतवर्ष में केवल ४ मंदिर सर्वोकृष्ट मने जाते थे। इन चार मंदिरों के टक्कर के मंदिर संसार भर में कहीं नहीं थ। इन चार मंदिरों में एक जन्मभूमि का श्रीराम मंदिर दूसरा कनक भवन और तीसरा कश्मीर का सूर्य मंदिर और चौथा प्रभास पट्टम का श्री सोमनाथ मंदिर।
ईस्वी सन १५२८ में फतेहपुर सीकरी के पास चितौड़ के राजा संग्राम सिंह से पराजित होकर मुग़ल सम्राट बाबर अयोध्या भाग आया उन दिनों श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर बाबा श्यामनन्द जी नाम के एक पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा निवास करते थे इनकी सिद्धाई का धाक उस समय समस्त उत्तर भारत में फैली हुयी थी जिससे प्रभावित होकर हजरत कजल अब्बास मूसा आशिकान कलंदरशाह नाम का फकीर आया और बाबा श्यामनन्द जी साधक शिष्य बन कर जन्मभूमि पर रहने और योगक्रिया सीखने लगा, कजल अब्बास जाती का मुसलमान था इसीलिए बाबा श्यामानन्द जी उसे मुसलमानी ढंग से ही उसे योग की शिक्षा देने लगे। जिसके परिणाम स्वरुप कुछ ही दिनों में वह भी पंहुचा हुआ सिद्ध फ़क़ीर बन गया और उसकी सिद्धाई की धाक भी फ़ैल गयी। कुछ दिनों पश्चात जलालशाह नाम का एक और मुसलमान फ़क़ीर वहां आया और वह भी बाबा श्यामानन्द जी का साधक शिष्य बन गया और वहीँ रह कर योग क्रिया सीखने लगा
जलालशाह कट्टर मुसलमान था। बाबा श्यामानन्द जी के साथ रह कर उसे जब जन्मभूमि के महत्व के बारे में पता चला और उसने यह जाना की जन्मभूमि का स्थान एक सिद्ध पीठ है तथा एक मंत्र अथवा अनुष्ठान की योजना वहां अनंत कोटिगुना बुद्धि पाकर फलवती होती है तो उसके दिमाग में इस स्थान को खुर्द मक्का और सहस्रों नदियों का निवास स्थान सिद्ध करने की सनक सवार हुई। उसके प्रयत्न से बड़ी बड़ी कब्रें पुराने ज़माने की के ढंग से बनवायी गयी। अयोध्या स्थित पुराने महर्षियों की समाधि विकृत कर उन्हें कब्रों के ढंग पर बदल दिया गया। जाबेदानी जिंदगी प्राप्त करने के इच्छा से दूर दूर से मरे हुए मुसलमानो के मुर्दे लाकर पुरे अयोध्या में दफनाए जाने लगे। भगवान् श्रीराम की पावनपुरी कब्रों से पाटी जाने लगी।
जैसा की बाबा श्यामानन्द की कृपा से इन दोनों की सिद्धाई की धाक भी दूर दूर तक पहुंच चुकी थी फतेहपुर सीकरी के संग्राम में बुरी तरह पराजित होकर बाबर जब प्राण बचाने की इच्छा से भाग निकला तो शांति प्राप्ति करने की इच्छा से अयोध्या आकर जलालशाह और कजल अब्बास से मिला दोनों फ़क़ीर ने इसे आशीर्वाद दिया की लड़ाई में तुम्हे अवश्य विजय मिलेगी। यह आशीर्वाद पाकर बाबर लौट गया और ६ लाख सेना लेकर पुनः राणा सांगा का सामना किया और उनके ऊपर विजय प्राप्त कर लिया। इस युद्ध में बाबर की ६ लाख सेना से राणा सांगा के ३० हजार का सामना हुआ जिसमे बाबर के नब्बे हजार सैनिक और राणा सांगा के ६०० सैनिक जीवित बचे।
विजय प्राप्त करने क पश्चात बाबर पुनः अयोध्या आया। उसके ऊपर अपनी सिद्धाई की धाक जमा कर जलालशाह और कजल अब्बास ने जन्मभूमि विध्वंश करके उसके ऊपर एक मस्जिद बनवा देने का वचन ले लिया उसके बाद बाबर ने मंदिर गिरा कर मस्जिद बनवा देने की आज्ञा अपने वजीर मीरबाँकीखां ताशकन्दी को देकर दिल्ली चला गया। मीरबाँकीखां एक जबरदस्त तासुब्बी (जलने वाला) मुसलमान था।
बाबर के जाते ही उसने मंदिर को मिसमार नष्ट कर डालने की आज्ञा अपने सैनिकों को दे दी। बाबा श्यामानन्द जी अपने साधक शिष्यों की करतूत पर पछताते हुए प्रतिमा को श्री सरयू जी पघार कर और दिव्य विग्रह को अपने साथ लेकर उत्तराखंड को चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के पापदादि हटा दिए और मंदिर के द्वार पर खड़े होकर कहा पहले जब हम मर जायेंगे तभी कोई विधर्मी मंदिर के अंदर प्रवेश कर सकेगा। जलालशाह की आज्ञा से चारो पुजारियों का सिर काट दिया गया और लाशों को चील कौवो को खाने के लिए बहार फेंक दिया गया तथा तोपों की मार से मंदिर को भूमिसात कर दिया गया। मंदिर के सामग्रियों से ही मंस्जिद का बनना आरंभ हुआ। जैसा की ऊपर लिख चुके हैं की यह मंदिर भारत के तत्कालीन के सर्व प्रसिद्ध ४ मंदिरों में सर्व प्रथम था, कहा जाता है की इस भव्य मंदिर में एक सर्वोच्य शिखर और सात कलस थे।
आजकल के मनकापुर और अमोढ़ा से इनका भव्य दर्शन होता था। मंदिरों के चारों ओर लगभग ६ सौ एकड़ का सविस्तृत मैदान था सुन्दर सुन्दर उद्यान और कुञ्ज थे। उद्यान के बीचो बीच में दो सुन्दर पक्के पक्के कूप थे जो क्रमशः मंदिर के गोपुर के सामने और अग्नि कोण पर स्थित थे। सामने वाला कूप नवकोण का था। जिसे कंदर्प कोण कहा जाता था इस कूप के जल से स्नान कर राजा ययाति ने युवकत्व प्राप्त किया। अग्नि कोण पर स्थित कूप महाराजा दशरथ जी ने राजमाता कौशल्या जी के लिए बनवाया था इसका नाम प्रथम ज्ञान कूप था। माता सीता जी के विवाह होकर आने पर महारानी कौशल्या जी ने प्रथम वधू मुख दर्शन में इसे सीता जी को दे दिया था, तब से इसका नाम सीता कूप पद गया था। राज महल के भीतर भोजन आदि इसी कूप के जल से बनता था विवाह आदि के सुबह अवसर पर माताएं कुएं में पावं का कृत्य इसी कूप में करती थी। कसौटी के ८४ प्रस्तर स्तम्भों पर जन्मभूमि का भव्य श्रीराम जन्मभूमि मंदिर बना हुआ था।
मंदिर के पूर्व द्वार पर भव्य गोहर था जिसमे नित्य प्रातः काल सहनाई में भैरवी और सायंकाल श्याम कल्याण एवं गौरी राग गया जाता था।
बड़े बड़े विद्वान वेदपाठी ब्राह्मण प्रातः काल भगवान की मंगला आरती के समय श्री सूक्त और पुरुष सूक्त का सत्वर पाठ नित्य सुनाया करते थे। मंदिर के पश्चिम ओर अतिथिशाला थी जिसमे ब्राह्मण साधु अतिथि अभ्यागतों के उचित सत्कार होने का सर्वोकृष्ट प्रबंध था। एक पाठशाला भी थी जिसमे ऋत्विज ब्राह्मण तैयार किये जाते थे जो अष्टांग योग में निपुण वेद शास्त्रों में पारंगत होकर देश देशांतर में घूम घूम कर आये वैदिक संस्कृत धर्म का प्रचार करते थे।
साभार: स्वर्गीय पं रामगोपाल पांडेय “शारद”
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